Wednesday, March 21, 2012

मानव तेरा रस्ता

अपनी मंजिलें अभी कितनी दूर हैँ,
अपना अशियाना भी किधर है,
तड़पते लोग छोड़ के आयें हैं जिसे,
शायद हमें भी बिछड़ के जाना उधर है,

हम टूट चुकें हैं या फिर टूटना बाकी है,
टूटे हुए ख्वाबों को जुड़ जाना मगर है,
मिलते-बिछड़तें हैं अपने ही रास्ते में,
शायद लम्बा बहुत अपना डगर है,

उलझे हुए हैं लेकिन थकतें नहीं हैं,
क्योंकि मंजिल पे ही सिर्फ अपनी नजर है,
ये आप जानतें हैं कि सबका है जमाना,
पर हमें मालूम है हमारी किसको फिकर है,

लोग क्यूँ हँसतें हैं मेरी डूबती हुई कश्ती पे,
क्या इतना भी क़ातिल अपना जिगर है,
धरा के छत से "गगन" ही देखता है, हे !
मानव अभी बहुत लम्बा तेरा सफ़र है,

                                                                                                                                                                       27/08/2010 राकेश  'गगन'

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