Wednesday, March 21, 2012

कुछ ऐसा वो कातिल बेगानों में था,

एक शम्मा ज़लाया मैं उसके लिए
मगर वो तो अपने गुमानों में था,

चाँद तारों से रौशन वो हो ना सका,
नूर उसका छिपा आसमानों में था,

चैन अपना गँवाया था शामों-सहर,
कुछ ऐसा मैं पागल दिवानों में था,

पीर उठती रही अश्क बहते रहे,
अक्स मेरा तो उसके निशानों में था,

आशियाना था उसका मेरी राह में,
दिल तो उसका किसी के ठिकानों में था,

लेके खन्जर जनाजे पे आया मेरे,
कुछ ऐसा वो कातिल बेगानों में था,

                                                                                                 10/07/2009  राकेश मिश्र 'गगन

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