Saturday, March 31, 2012

कमाई ग़र नहीं हो तो लुगाई साथ ना रखना

कोई अपना नहीं होता मग़र कहने को दुनिया है,
किसी की चाहत का कभी तुम आस ना रखना,

भले ही दिन गुज़र जाये बिना पानी के दुनिया में,
मगर दुश्मन की तश्रीफों पे अपनी प्यास ना रखना,

कभी ग़र शाम को डँसती भले हो तेरी तनहाई,
बिना समझे पड़ोसी को अकेले पास ना रखना ,

लगा हो दाँव पे ओहदा भले ही चन्द सिक्कों पर,
भरी महफिल में अपनी तुम कभी औक़ात ना रखना,

जरा तुम देख लो रग़ के लहू को चीरकर अपना,
बिना इस्बात के तू खून का इल्ज़ाम ना रखना,

गगन ये कह रहा खाके क़सम कुछ ग़ौर करलो जी,
कमाई ग़र नहीं हो तो लुगाई साथ ना रखना,

                                                                                                                   01/02/2012  राकेश 'गगन'

भारतीय भ्रष्ट नेता का निर्माण************************

मेरे इस देश का,जो पाता है नहीं मंज़िल,
गुज़र जाता समय उसका, मग़र हँसता नहीं वो दिल,

वो पाता है कोई साथी, किसी इक राजनीति का,
जो समझाता है उसको कि, कमाई है नहीं मुश्किल ।

उतर जाता है वो मैदान में, फिर जंग लड़ता है,
मगर थोड़े से अनुभव से, वो फीका रंग पड़ता है,

फिसल जाता है पग उसका , किसी पहले तज़ुर्बे में,
गिरातें हैं सभी उसको, मग़र फिर से वो अड़ता है,

कोई मंजिल नहीं मुश्किल, मग़र पाना नहीं आता,
वो कहता है सभी से ये, मुझे पछताना नहीं आता,

मुझे इक वोट दे दो तुम, बदल दूँगा सभी को मैं,
औरों की तरह मुझको , बदल जाना नहीं आता,

लुभाता है सभी को वो, अन्ततः जीत जाता है,
बड़ी मुश्किल से आख़िर वो, किसी मंज़िल को पाता है,

वो निर्दल था मग़र, पहली दफ़ा सबको छकाया था,
जो निर्दल था तभी, आख़िर वो मंत्रिपद को पाता है,

असल में अब शुरू होती, कोई उसकी कहानी है,
वो झूठा था वो बुझदिल था, ये सबकी अब ज़बानी है,

घोटाला कर दिया उसने, शुरू में वो बिना पूछे,
डुबा देता वो पार्टी को ,ये उसके मन की मानी है,

लो अब फिर भ्रष्ट का तमगा , मढ़ाता है सिरे पर वो,
मगर बेफिक्र रहता है , न रोता है किये पर वो,

वो दल के सब दलालों पर, उँगलियों को उठाता है,
फिसल आता बुलन्दी से, किसी दिन हाशिये पर वो,

खतम होती कहानी अब, वो आखिर फेल होता है,
सजा मिलती उसे ऐसे, कि उसको जेल होता है,

कभी भी नाज़ ना करना, किसी ओहदे को पा कर तुम,
बुराई करने वालों का ,नरक से मेल होता है ।

                                                               05/09/2014 राकेश गगन

Friday, March 30, 2012

ख़लिश(ग़जल)

कुछ आहटें नहीं तुम थोड़ा सा ख़्वाब दे दो,
मुझे चाहते हो कितना इसका हिसाब दे दो,
तुम्हें उम्र भर मैं देखूँ ये है ख़्वाहिशें हमारी,
शामो-सहर हो रौशन मुझे आफ़ताब दे दो,


तेरी आरजू के ख़ातिर मेरी जान अब फ़िदा है,
औक़ात क्या हमारी ये सब तुम्हें पता है,
कहते हैं नाफ़हम अब मुझको नशा नहीं है,
तुझको नशे में देखूँ ऐसी शराब दे दो,


तुझे नाज़ है ख़ुदी पे की तू अभी जवाँ है,
मेरा नज़्म है तुझी पे और हर कलम फ़ना है,
करके लहू को स्याही लिखता रहूँगा तुझको,
या पढ़ सकूँ मैं तुझको ऐसी क़िताब दे दो,


मैं हो न जाउँ पागल मेरी तिश्नग़ी मिटा दो,
तुम किस चमन में हो अब मुझको पता बता दो,
सूखे हुए ग़ुलों से कुछ याद आ रहा है,
बीते हुए पलों का मुझको ग़ुलाब दे दो,


तुम नक्श हो किसी का मुझको ख़बर नहीं है,
तुम खोदते हो जिसको मेरी क़बर नहीं है,
तेरे लब्ज़ की है बन्दिश या बोलते नहीं हो,
फिर क्या ख़लिश है तेरा इसका जवाब दे दो ।

                                                                                               26/12/2011  राकेश 'गगन'

Monday, March 26, 2012

- एक पैग़ाम ज़माने को -

कविताएँ ही नहीं बचीं हैं अब सुनाने को,
क्या कहूँ इस पत्थर दिल ज़माने को,
वो सिहरन बचातें हैं मेरे जलते हुए जनाज़े से,
और मुझसे ही कहतें हैं आग बुझाने को ।

क्या परस्तिश करूँ उस ज़ालिम खुदा की,
जिसे अब आदत ही नहीं रही दूसरों के भला की,
मजे लूटता है आराम से वहाँ बैठकर,
जो कहता है भेजा हूँ सिर्फ इन्सानियत आजमाने को ।

हर ख़ता को यहाँ सजा नहीं मिलता,
हर जश्न में यहाँ सबको मजा नहीं मिलता,
कोई जिक्र कर देता है अपनी गलतियों को यहाँ,
कोई कोशिश करता है सिर्फ अपने अल्फ़ाज़ छुपाने को,

यहाँ इन्सान का ऐसा ही इबादत है,
पता नहीं क्यों सबको रूठने की आदत है,
हैसियत वाले एक बार रूठकर तो देखें,
लाखों खड़े हो जायेंगे सिर्फ उन्हें मनाने को ।

किसका बिखरता है संघर्ष से ईमान यहाँ,
टकराने से ही टूटता है इन्सान यहाँ,
कायरों से भी बदतर हैं छुप के बैठने वाले,
लड़ने वाले भूलतें नहीं अपने निशाने को ।

बहुत लिख दिया कोरे काग़ज पे हमने,
बहुत पढ़ लिया मेरी स्याही को तुमने,
क्यों उदास बैठे हैं मेरी पंक्तियों में उलझकर,
केवल "गगन" ही सुनाएगा ये पैग़ाम ज़माने को ।

                                                                                                15/12/2011    राकेश 'गगन'

*** हाल-ए-यूपीए ***

मनमोहन की बात निराली देश-दिशा भरमावै,
चिकनी-चुपड़ी बात सोनिया पगड़ी तले सुनावै,

सब कहतें हैं कठपुतली हैं मेरे मनमोहन जी,
बात अहम सरदार जानते अपनी अकल छिपावै,

महँगाई की मार झेलकर जन-मानस है हारा,
बजट दिखाकर देशहित में अपना पिण्ड छुड़ावै,

आम बजट से आस लगाये कहें प्रणव दादा से,
मेरी नैया पार लगाके क्यों आखिर पछतावै,

कहे गगन उड़ लो आखिर तुम बाद में पछतावोगे,
हो जायेगी जब्त ज़मानत अन्त भला तो आवै ।


                                                      राकेश गगन(04/05/2012)

Sunday, March 25, 2012

*** तू कल फिर से चलेगा ***

आज तेरी बाँहों में दम नहीं तो क्या हुआ,
ये वादा है मेरा तू कल फिर से उठेगा,
आज तेरे कदमों में वो ताकत नहीं तो क्या हुआ,
ये वादा है मेरा तू कल फिर से चलेगा...

ये माना कि तेरे पास समय का वो हिस्सा नहीं,
ये माना कि आज तेरे पास पुश्तैनी हिम्मतों का किस्सा नहीं,
तेरा जकड़ा हुआ हाथ कल फिर से खुलेगा,
ये वादा है मेरा तू कल फिर से चलेगा...

जो ग़म है तेरे पास वो सिर्फ तेरा नहीं,
जो खुशियाँ है मेरे पास वो सिर्फ मेरा नहीं,
फिर क्यूँ भिगोता है बिस्तर आँसूओं से तू,
फिर क्यूँ चुभोता है काँटे अपनी खुशियों को तू
तेरा छलकता हुआ आँसू कल फिर से थमेगा,

ये वादा है मेरा तू कल फिर से चलेगा...

तू खुद जीना चाहता है अपनी तनहाईयों में,
या खुद मरना चाहता है अपनी रुसवाईयों में,
क्या सिर्फ तुझे ही मरने का हक़ है दुनिया में,
या सिर्फ मुझे ही जीने का हक़ है दुनिया में,
तेरा जमा हुआ लहू कल फिर से बहेगा,

ये वादा है मेरा तू कल फिर से चलेगा...

कल फिर आइने में इक सूरत होगा तेरा,
कल फिर दुनिया को जरूरत होगा तेरा,
तू उदास क्यूँ सोया है अपने ही आशियाँ में,
तू गया क्यों नहीं कल से अपने ही गुलिस्ताँ में,
तेरा भारी हुआ पलक कल फिर से जगेगा,

ये वादा है मेरा तू कल फिर से चलेगा...

तेरी कश्ती को इन्तजार है तेरे ही साहिलों को,
तेरे कदमों को इन्तजार है तेरी ही मंजिलों को,
तू क्यूँ उलझा हुआ है दुनिया की बातों में,
तेरे रास्तों को रोका है समय के काँटों नें,
ये कंटक तेरे संचित हिम्मतों से ही हटेगा,
ये वादा है मेरा तू कल फिर से जगेगा...
ये वादा है मेरा तू कल फिर से उठेगा...


ये वादा है मेरा तू कल फिर से चलेगा...

                                                                                              25/11/2011  राकेश 'गगन'

** शायद मेरे पास एक तनहा दोस्त मोबाइल है **

हर वक्त तनहा गुजरता है अब मेरा,
फिर अकेले में भी क्यूँ चेहरे पर स्माइल है,
मुस्कुराहट मेरा अकेलेपन में ही सही,
शायद मेरे पास एक तनहा दोस्त मोबाइल है,

सर्द सिहरन में रजाई की पनाहें हो,
या गर्म लू के मैदानों में कुछ ढूँढती निगाहें हों,
एहसास तो यही होता,जैसे अजीजों से भरी फाइल है,
शायद मेरे पास एक तनहा दोस्त मोबाइल है,

मुझसे तो छोटा है ये पर दर्द पे रोता नहीं,
पास इसके सबकुछ है पर शायद कुछ भी खोता नहीं,
यही इसकी खूबियाँ है और यही इसका स्टाइल है,
शायद मेरे पास एक तनहा दोस्त मोबाइल है,

हमसफर का कुछ सुकून भरा सन्देशा हो,
या बस एक मिस-काल आने का अन्देशा हो,
गूँजती महफिल में एक शान्त प्रोफाइल है,
शायद मेरे पास एक तनहा दोस्त मोबाइल है,
शायद मेरे पास एक तनहा दोस्त मोबाइल है,

                                                                                                      01/11/2011  राकेश 'गगन'

Saturday, March 24, 2012

*** एक अर्ज कि- मैं जिन्दा हूँ ***

मेरी दास्तां कुछ इस कदर फँसी है अब दरारों पे,
वो शायद भूल बैठे थे, मैं जिन्दा हूँ सहारों पे,

कशिश अब है नहीं मुझको तू आकर देखले गगन,
कहूँ अब क्या मेरी दुनिया, चलती है इशारों पे,

ये माना थी मेरी मंजिल तेरे आगे दरकती सी,
मगर अब है फिदा रौशन, मेरे बुझते सितारों पे,

ज़ेहन में आज भी क़श्ती वो डूबी है तेरे ख़ातिर,
जो कल तक छोड़ आया था तेरे हिस्से किनारों पे,

वो कलियाँ भी नहीं खिलतीं जो तुझपे मुस्कुरातीं थीं,
भला क्या भूल आया है तू बाकी उन बहारों पे,

मेरे ख़ातिर तेरी नज़रें, झुकीं हैं क्या अभी शायद,
या तेरा कुछ नहीं चलता तेरे बेबस नजारों पे,,,

                                                                                                                10/10/2011  राकेश 'गगन'

Wednesday, March 21, 2012

*** एक दिल की बात ***

जमाने से जमाने को, कोई शिकवा नहीं है,
मगर बिखरे जमाने में, कोई तनहा नहीं है,
है दुनिया में बहुत इन्सां, परस्तिश करने वाले,
जहाँ अफसोस है इनमें, कोई खुदा नहीं है,


हर इन्सान की आदत, नहीं होती सताने की,
कोई आशा नहीं रखता, किसी से चोट खाने की,
अगर मुमकिन नहीं है, ज़ख़्म को जाहिर यहाँ करना,
भला फिर क्या जरूरत है, यहाँ आँसू बहाने की,

मेरी चौखट पे आने से, उसे अब शर्म आती है,
मेरी आहट को पाकर वो, भला क्यूँ मुस्कुराती है,
किसी दिन आज़मा लेना, मेरी गलियों में आकर तुम,
मेरी तनहाइयाँ भी, आज तक तुझको बुलातीं हैं,

कभी हमने तुम्हें पूजा कभी तुमने हमें पूजा,
मगर अफसोस है दुनिया में तेरा है कोई दूजा,
कहाँ से आ रही है ये तेरी गलियों से शहनाई,
बता अब कौन है तेरा, मेरा तो हर कोई दूजा,

तेरी किस्मत को चमका दे ये मुझमें हैं अभी ताकत,
सबिस्तों को तेरे अब भी बना सकता मेरा हिम्मत,
तू डरता है मेरे अक्सों से मतलब है नहीं तुझको,
या थोड़ा है तेरे दिल में मेरे खातिर कोई चाहत,

तू खुद से दूर है अबतक वजह है क्या तेरा आखिर,
इशारों से मुझे बतला तेरी मंजिल कहाँ है फिर,
ये सबको है यहाँ मालूम, तू वहाँ पर रुक नहीं सकता,
तू ठहरा है वहाँ अब तक, वजह है क्या तेरा आखिर,

अब में थक चुका हूँ क्या, तुझे एहसास है इसका,
बिना तेरे मेरी दुनिया को अब फिर आस है किसका,
लो अब मैं बन्द करता हूँ कलम से बन्दिशें लिखना,
मेरे मंजिल के रस्तें में भला अब साथ है किसका,

कहूँ अब क्या तेरी दुनिया से मतलब है नहीं मुझको,
मैं जिन्दा हूँ ज़माने में, ये ख़बर है नहीं तुझको,
फिज़ाओं में जहाँ तुमने, छटा अपनी बिखेरी थी,
उसे मैं भूल जाउँ या, वो असर है नहीं मुझको,

जिसे तुम चाहते हो वो, तुम्हे बस आजमाएंगे,
कभी रूठेंगे तुमसे तो, कभी तुमको मनाएंगे,
जरा तब सोच लेना तुम, कोई तुमको हँसाता था,
मगर किस्मत तेरी फूटी, तुझे बस वो रूलाएंगें,

अगर ऐसा नहीं है तो, कोई अब रो नहीं सकता,
किसी को पा लिया है जो, उसे अब खो नहीं सकता,
"गगन" ये कह रहा जिनसे, वो अगर सुन रहे होंगे,
तो वादा है मेरा दुनिया, बेवफ़ा हो नहीं सकता,

                                                                                                05/10/2010   राकेश 'गगन'

*** हर आँसू कुछ कह जाता ***

हर आँसू कुछ कह जाता,
या फिर पलकों पे रहता है,
नीर नहीं अल्फ़ाज है दिल का,
या अपने दिल की कहता है,

हर आँसू कुछ कह जाता,
या फिर पलकों पे रहता है,
ग़म का मातम ग़र छाया हो,
या खुशियों से भर आया हो,

अश्क अत्फ है दोनों पल का,
यह अब्र सरीखे सहता है,
हर आँसू कुछ कह जाता,
या फिर पलकों पे रहता है,

क्यूँ अहज़ान छुपाया तुमनें,
ग़म में खुद को बहकाया तुमने
अब अश्क तेरा कहता मुझसे
जो तनहाई मे बहता है,

                                                                         हर आँसू कुछ कह जाता,
  या फिर पलकों पे रहता है,
       क्या कष्ट नहीं होता है मुझको,
         या खुशी नहीं मिलता है तुझको
मेरे ग़म से अन्जान है क्यूँ
      या अपने ही ग़म को सहता है,
हर आँसू कुछ कह जाता,

   या फिर पलकों पे रहता है,

                                                                                     02/08/2010  राकेश 'गगन'

अर्ज-ए-अल्फ़ाज़

किसी को चाहकर चाहत भूलाना भी नहीं अच्छा,
दूर से ही किसी से दिल लगाना भी नहीं अच्छा,

करोगे क्या भला उनका ज़रा तुम नींद से जागो,
ख़यालों में फ़कत ख़न्जर चलाना भी नहीं अच्छा ।

ज़रा तुम ग़ौर करलो तख़्त की तस्वीर बदली है,
कभी क़ुदरत पे कीमत को लगाना भी नहीं अच्छा ।

ग़ुजर जायेंगे ग़ज में नापने वाले ज़मीनों को,
किसी मिट्टी के खातिर ज़ान जाना भी नहीं अच्छा ।

किसी तश्रीफ़ पर महफ़िल में ग़र तुम मुस्कुराते हो,
तरक्की में तबस्सुम को छुपाना भी नहीं अच्छा ।

तेरी तक़दीर तुझसे पूछती है क्या तुम्हारा था,
तो फिर बरक़त में अपनी जां लुटाना भी नहीं अच्छा ।

"गगन" को है पता कि तुम यहाँ हो चन्द लम्हों के,
कभी नफ़रत में रिश्तों को मिटाना भी नहीं अच्छा ।


                                                                                                   05/08/2010     राकेश 'गगन'

मानव तेरा रस्ता

अपनी मंजिलें अभी कितनी दूर हैँ,
अपना अशियाना भी किधर है,
तड़पते लोग छोड़ के आयें हैं जिसे,
शायद हमें भी बिछड़ के जाना उधर है,

हम टूट चुकें हैं या फिर टूटना बाकी है,
टूटे हुए ख्वाबों को जुड़ जाना मगर है,
मिलते-बिछड़तें हैं अपने ही रास्ते में,
शायद लम्बा बहुत अपना डगर है,

उलझे हुए हैं लेकिन थकतें नहीं हैं,
क्योंकि मंजिल पे ही सिर्फ अपनी नजर है,
ये आप जानतें हैं कि सबका है जमाना,
पर हमें मालूम है हमारी किसको फिकर है,

लोग क्यूँ हँसतें हैं मेरी डूबती हुई कश्ती पे,
क्या इतना भी क़ातिल अपना जिगर है,
धरा के छत से "गगन" ही देखता है, हे !
मानव अभी बहुत लम्बा तेरा सफ़र है,

                                                                                                                                                                       27/08/2010 राकेश  'गगन'

कुछ ऐसा वो कातिल बेगानों में था,

एक शम्मा ज़लाया मैं उसके लिए
मगर वो तो अपने गुमानों में था,

चाँद तारों से रौशन वो हो ना सका,
नूर उसका छिपा आसमानों में था,

चैन अपना गँवाया था शामों-सहर,
कुछ ऐसा मैं पागल दिवानों में था,

पीर उठती रही अश्क बहते रहे,
अक्स मेरा तो उसके निशानों में था,

आशियाना था उसका मेरी राह में,
दिल तो उसका किसी के ठिकानों में था,

लेके खन्जर जनाजे पे आया मेरे,
कुछ ऐसा वो कातिल बेगानों में था,

                                                                                                 10/07/2009  राकेश मिश्र 'गगन

आत्मा क्या है ? एक विचार एक वैज्ञानिक सिद्धान्त !

बहुत दिनों से मेरे मन में तमाम तरह के विचारों का संघात चल रहा था कि आखिर आत्मा है क्या ?? क्या वास्तव में आत्मा होती है ?? यदि नहीं होती तो इसके नाम का अस्तित्व ही क्यों विद्यमान है ? ये सब तरह के विचार और प्रश्न मेरे मन में पूरी तरह से घर कर चुके थे । इसके लिए मैंने सैकड़ों आध्यात्मिक पुस्तकों तक का अध्ययन कर डाला लेकिन अध्ययनोपरान्त मेरा चेतन मन मुझे ही इस बात के लिए कोस रहा था कि तुम एक वैज्ञानिक प्रधान समाज से जुड़े हो, तुम्हारी पृष्ठभूमि भी विज्ञान की छत्र छाया में ही गुजरी है, तो फिर इतनी सरलता से आध्यात्मिक विचारों के आगे क्यों नतमस्तक हो गये ? वास्तविकता भी यही है, एक विज्ञान का छात्र पूरा जीवन केवल संघर्ष ही तो करता है, लेकिन उसकी जिज्ञासा शान्त न होकर और बढ़ती एंव और बढ़ती ही रहती है। इसी बीच वह अपने निष्कर्षों तक पहुँचकर अपनें विचारों की धारा बदलता है जिसे हम विज्ञान की नयी खोज मान बैठतें है, लेकिन उसके लिए वहीं से एक नई मंजिल का नया मार्ग मिलता है । मैंने कई पुस्तकों का गहन अध्ययन किया लेकिन आत्मा की एक ठोस परिभाषा को न प्राप्त कर सका । जितनी तरह की पुस्तकें उतने ही तरह के विचारों ने मुझे पुन: उसी मार्ग पर ला खड़ा कर दिया जहाँ से मैं अपनी मंजिल तलाशने निकला था । मैंने इसी बीच कुछ फारेन राइटर्स की पुस्तकों का भी अध्ययन करना प्रारम्भ कर दिया। जितनों के बारे में मैं सुना उतनी ही किताबों को खोजकर अपनी जिज्ञासा को शान्त करने का प्रयास करता रहा । कुछ वैज्ञानिक लेखक जिन्होंने लाइफ साइन्स से जुड़े तथ्यों पर प्रकाश डाला था उन्होनें ही मुझे कुछ राहत प्रदान किया जिनमें ओवरी-डी-ब्रायन की आलोचनात्मक पुस्तक " लाइफ बियान्ड लाइफ-4" सबसे प्रभावशाली रहा लेकिन जान कैनेडी की पुस्तक " नथिंग इज एव्रीथिंग" भी कम प्रभावशाली न रहा । लेकिन कुछ आध्यात्मिक पुस्तकें जैसे "जीवनादर्श व आत्मानुभूति " स्वामि अड़गड़ानन्द तथा गरूणपुराण कम रोचक न थे मैंने किसी को नहीं छोड़ा सबका विच्छेदन कर डाला यहाँ तक कि गीता पर लिखी तीन पुस्तकों का भी अध्ययन करने का मौका मिला और बहुत कुछ हासिल किया । अन्तत: मेरे निष्कर्ष का समय आ ही गया और मैनें खुद को सन्तुष्ट करने का एक सबसे उपयुक्त मार्ग की खोज की जो शायद आपको भी इस संशय से मुक्ति दिला सकती है, अगर आप थोड़ बहुत भी वैज्ञानिक तथ्यों को स्विकारतें हैं तो ...!! " आत्मा एक उर्जा है " । हाँ ये सौ फिसदी सत्य है कि आत्मा एक उर्जा है । जिस प्रकार हम उर्जा को न तो देख सकतें हैं और न ही सुन सकतें हैं केवल इसके एक विशेष अवस्था को महसूस कर सकतें है ठीक उसी प्रकार हम आत्मा को केवल महसूस कर सकतें हैं न तो उसे हम देख और न ही हम सुन सकतें हैं और जिस अवस्था की हम उपर बात किये है वह अवस्था है हमारा चेतन मन । एक दूसरा तथ्य "आत्मा एक उर्जा " के सम्बन्ध में बहुत ही ठोस है ...। E=MC2 ( E-Energy, M-mass, C- velocity of light*2) के अनुसार- "उर्जा को न तो उत्पन्न किया जा सकता है और न ही न नष्ट किया जा सकता है बस इसे एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित किया जा सकता है ।" जैसे हम घरों में प्राय: विद्युत बल्ब से प्रकाश का अनुभव करतें हैं जो एक विद्युत उर्जा का रूप है । जिसमें विद्युत की उर्जा एक प्रकाश की उर्जा में परिवर्तित हो रहा है, अन्य जैसे गाड़ी चलातें है तो जो गाड़ी के लिए जो गतिज उर्जा मिल रही है उसका दूसरा रूप पेट्रोल द्वारा तैयार यान्त्रिक उर्जा है । ठीक इसी प्रकार हमारे शरीर में मौजूद आत्मा की उर्जा एक द्वितीयक उर्जा है जिससे हमें केवल दैनिक दिनचर्यां के लिए उर्जा मिलती है अन्यथा जीवन संभव नहीं है और इसका प्राथमिक स्रोत को ही शायद परमात्मा की संज्ञा दी गयी है । अब प्रश्न ये उठता है कि जब हमारा शरीर एक उर्जा आधारित माध्यम मात्र है तो लगातार उर्जा प्रवाहित होने के बावजूद भी हमारा जीवन सीमित क्यूँ है ? इसके लिए मैं यहाँ अवगत करा दूँ कि कोई भी यान्त्रिक मशीन को किसी प्राथमिक उर्जा की सहायता से भी एक सीमा तक ही चलायमान रखा जा सकता है । यह यान्त्रिक उर्जा के सन्दर्भ में एक वैज्ञानिक पहल है जैसे एक बाइक को केवल पेट्रोल व मोबिल की सहायता से उम्र भर नहीं चलाया जा सकता है उसकी भी एक सीमा होती है जिसे हम सर्विसिंग कहतें हैं । लेकिन शरीर की सर्विसिंग के ज्ञान का स्तर एक इन्सान के स्तर से कहीं ऊपर है ।

अर्ज-ए-जहाँ

बला है क्या यह इन्सां भी,
हर पल अज़ीज पे मरता है,
जो खुद ग़ैरों पे टिका हुआ,
नाचीज़ उसी से डरता है,

फूलों की औकात ही क्या,
दिनकर से मतलब भूल गया,
माना चाहत है भँवरे की,
जो ख़ुद फूलों से सँवरता है,

वो क्या जाने इस दुनिया को,
दुनिया जिसको ही सताती है,
जो रूठते हैं बिन कारन ही,
शायद उनको ही मनाती है,

ख़ुद लोभ के कारण लोग सभी
अन्जाने में कुछ कर जाते,
ये लोभ है तो फिर जग सारा
पग-पग पे आहें भरता है,

जो ख़ुद मंजिल को पाया है
मेहनत की कीमत जानतें हैं,
एहसास हुआ ग़र उनको तो,
पत्थर को भी कुछ मानतें हैं,

पथ में पत्थर आ जाये तो
फिर क्या करना उनसे पूछो,
साकार हुआ ग़र सपना तो
पत्थर के खातिर लड़ता है

मैं दुनिया की बातों में खुद,
बेखुद अक्सर ही पाता हूँ,
अनायास अन्जाने ही
पल में पागल हो जाता हूँ,

मैं खुद जिनको ही ढूँढा था
सूनी दुनिया की गलियों में,
वो निगाह भी आज तलक हमको
दुनिया में खोजा करता है,

उलझा है वो खुद फिर से
मायूस जहाँ के फ़सानों में,
वो अब उलझाता है मुझको
अपने नाचीज़ बहानों में,

फिर आज "गगन" गुमराह सही
अपनी बातों पे अड़ता है,
बला है क्या यह इन्सां भी,
हर पल अज़ीज पे मरता है,

                                                                                                  05/05/2008 राकेश मिश्र 'गगन

शाम से वो सड़क पे ही सोती रही ।

लोग हँसते रहे पर वो रोती रही,
लोग पाते रहे पर वो खोती रही,
राह पर रातभर लोग चलते रहे,
शाम से वो सड़क पे ही सोती रही ।

तू चला मैं चला आज अपनी गली,
चल भला अब तो फोकट में कंटक टली,
सीप से मोतियाँ लोग चुनते रहे,
पर वो आँसू की माला पिरोती रही ।

लोरियाँ गा रही थी कटोरा लिए,
जख़्म शब्दों से कितनों के उसने सिये,
सो रही थी सड़क पे खुले सर्द में,
रात उसके रगों को चुभोती रही ।

                                  
वो भिखारन थी लोगों से कहते सुना,
ज्येठ के धूप में उसने खुद को भुना,
ताकते तंग कपड़ों से उसके बदन
वो हया में ही खुद को डुबोती रही ।

राह पर रातभर लोग चलते रहे ,
शाम से वो सड़क पे ही सोती रही ।
                                                                             05/06/2008   राकेश मिश्र 'गगन