Monday, March 26, 2012

- एक पैग़ाम ज़माने को -

कविताएँ ही नहीं बचीं हैं अब सुनाने को,
क्या कहूँ इस पत्थर दिल ज़माने को,
वो सिहरन बचातें हैं मेरे जलते हुए जनाज़े से,
और मुझसे ही कहतें हैं आग बुझाने को ।

क्या परस्तिश करूँ उस ज़ालिम खुदा की,
जिसे अब आदत ही नहीं रही दूसरों के भला की,
मजे लूटता है आराम से वहाँ बैठकर,
जो कहता है भेजा हूँ सिर्फ इन्सानियत आजमाने को ।

हर ख़ता को यहाँ सजा नहीं मिलता,
हर जश्न में यहाँ सबको मजा नहीं मिलता,
कोई जिक्र कर देता है अपनी गलतियों को यहाँ,
कोई कोशिश करता है सिर्फ अपने अल्फ़ाज़ छुपाने को,

यहाँ इन्सान का ऐसा ही इबादत है,
पता नहीं क्यों सबको रूठने की आदत है,
हैसियत वाले एक बार रूठकर तो देखें,
लाखों खड़े हो जायेंगे सिर्फ उन्हें मनाने को ।

किसका बिखरता है संघर्ष से ईमान यहाँ,
टकराने से ही टूटता है इन्सान यहाँ,
कायरों से भी बदतर हैं छुप के बैठने वाले,
लड़ने वाले भूलतें नहीं अपने निशाने को ।

बहुत लिख दिया कोरे काग़ज पे हमने,
बहुत पढ़ लिया मेरी स्याही को तुमने,
क्यों उदास बैठे हैं मेरी पंक्तियों में उलझकर,
केवल "गगन" ही सुनाएगा ये पैग़ाम ज़माने को ।

                                                                                                15/12/2011    राकेश 'गगन'

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