Saturday, March 24, 2012

*** एक अर्ज कि- मैं जिन्दा हूँ ***

मेरी दास्तां कुछ इस कदर फँसी है अब दरारों पे,
वो शायद भूल बैठे थे, मैं जिन्दा हूँ सहारों पे,

कशिश अब है नहीं मुझको तू आकर देखले गगन,
कहूँ अब क्या मेरी दुनिया, चलती है इशारों पे,

ये माना थी मेरी मंजिल तेरे आगे दरकती सी,
मगर अब है फिदा रौशन, मेरे बुझते सितारों पे,

ज़ेहन में आज भी क़श्ती वो डूबी है तेरे ख़ातिर,
जो कल तक छोड़ आया था तेरे हिस्से किनारों पे,

वो कलियाँ भी नहीं खिलतीं जो तुझपे मुस्कुरातीं थीं,
भला क्या भूल आया है तू बाकी उन बहारों पे,

मेरे ख़ातिर तेरी नज़रें, झुकीं हैं क्या अभी शायद,
या तेरा कुछ नहीं चलता तेरे बेबस नजारों पे,,,

                                                                                                                10/10/2011  राकेश 'गगन'

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