मेरे इस देश का,जो पाता है नहीं मंज़िल,
गुज़र जाता समय उसका, मग़र हँसता नहीं वो दिल,
वो पाता है कोई साथी, किसी इक राजनीति का,
जो समझाता है उसको कि, कमाई है नहीं मुश्किल ।
उतर जाता है वो मैदान में, फिर जंग लड़ता है,
मगर थोड़े से अनुभव से, वो फीका रंग पड़ता है,
फिसल जाता है पग उसका , किसी पहले तज़ुर्बे में,
गिरातें हैं सभी उसको, मग़र फिर से वो अड़ता है,
कोई मंजिल नहीं मुश्किल, मग़र पाना नहीं आता,
वो कहता है सभी से ये, मुझे पछताना नहीं आता,
मुझे इक वोट दे दो तुम, बदल दूँगा सभी को मैं,
औरों की तरह मुझको , बदल जाना नहीं आता,
लुभाता है सभी को वो, अन्ततः जीत जाता है,
बड़ी मुश्किल से आख़िर वो, किसी मंज़िल को पाता है,
वो निर्दल था मग़र, पहली दफ़ा सबको छकाया था,
जो निर्दल था तभी, आख़िर वो मंत्रिपद को पाता है,
असल में अब शुरू होती, कोई उसकी कहानी है,
वो झूठा था वो बुझदिल था, ये सबकी अब ज़बानी है,
घोटाला कर दिया उसने, शुरू में वो बिना पूछे,
डुबा देता वो पार्टी को ,ये उसके मन की मानी है,
लो अब फिर भ्रष्ट का तमगा , मढ़ाता है सिरे पर वो,
मगर बेफिक्र रहता है , न रोता है किये पर वो,
वो दल के सब दलालों पर, उँगलियों को उठाता है,
फिसल आता बुलन्दी से, किसी दिन हाशिये पर वो,
खतम होती कहानी अब, वो आखिर फेल होता है,
सजा मिलती उसे ऐसे, कि उसको जेल होता है,
कभी भी नाज़ ना करना, किसी ओहदे को पा कर तुम,
बुराई करने वालों का ,नरक से मेल होता है ।
05/09/2014 राकेश गगन
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