Friday, June 15, 2018

मन्जर


जो कह रहा है साँसों का मन्जर
वो साज फिर से दिलाओ ना
मेरी याद बनके यूँ ख्वाब बनके
नींद में तुम समाओ ना

वो साज फिर से दिलाओ ना

कुछ बात खाली है रात खाली
बेशोर महफ़िल में साथ खाली
मेरे छत से आकर के बन हवा
साथ बाकी निभाओ ना

वो साज फिर से दिलाओ ना

मैं शख़्स तनहा दरख़्त तनहा
बेसाथ बेख़ुद है वक़्त तनहा
पल जो गुजरे हैं साथ अपने
वो पास आकर गिनाओ ना

                              वो साज फिर से दिलाओ ना        
                                                                            15/06/2018 राकेश गगन

Monday, January 20, 2014

कहाँ हम ज़लाएं दिया रौशनी का (कविता)


कहाँ हम मनाएं धरा पर दिवाली
कहाँ हम ज़लाएं दिया रौशनी का
तमस रह गया है दिवाली नयी है
कहाँ मिट चुका है ग़रीबी किसी का !!

कहाँ हम मनाएं धरा पर दिवाली
कहाँ हम ज़लाएं दिया रौशनी का !!
कहीं दिन में दीपक ज़लाए गएं हैं
कहीं मिट न पाया निशा का अन्धेरा,
कहीं चीखती रात दम तोड़ती है
कहीं दिख न पाया किसी को सवेरा
किसे शोर करने की फुर्सत यहाँ है
ये क़िस्सा है बस कुछ दबी ज़िन्दगी का !!

कहाँ हम मनाएं धरा पर दिवाली
कहाँ हम ज़लाएं दिया रौशनी का !!

तुम्हे रौशनी की तो ख़्वाहिश ना होगी
किराए पे सूरज को तुमने लिया है,
कहीं लूटती है शमा जिनकी अस्मत
कहीं लौ के ख़ातिर तरसता दिया है,
मुझे ग़म भुलाने की फुर्सत नहीं है
तुम्हें तो मिला है बहाना खुशी का !!

कहाँ हम मनाएं धरा पर दिवाली
कहाँ हम ज़लाएं दिया रौशनी का !!

कहाँ आस थी कि चिराग़े ज़लेंगीं
अंधेरी निशा में सुलगतें हैं तिनके,
दिवाली नसीबों में उनके कहाँ हैं
रक़ीबें हैं फूटी अमानत में जिनके,
ख़ुदा ने बनाया दिवाली तो कैसा
गगन देखता है अन्धेरा ज़मीं का !!

कहाँ हम मनाएं धरा पर दिवाली
कहाँ हम ज़लाएं दिया रौशनी का !!




                                                                     11/11/2012___©-राकेश 'गगन'

कुछ चलचित्र में दृष्टिपटल पर (कविता)


कुछ चलचित्र में दृष्टिपटल पर,
मध्यरात्री रात्री को तुम आते हो,
घोर निशा नित सारंगी संघ
साज़ सुरीले तुम गाते हो,
साया हो या हो चेतन तुम
कल्पित बिम्ब तेरा दिखता है,
सकल उजेरा हो रैना पर
संशय अज़ब बना रहता है,
मेरी अभिलाषा है तुमसे
शाश्वतता अपनी दिखलाओ,
आभासी या बन प्रतिमूर्ति
नयन समक्ष पुनः आ जाओ
आहत दिल में किस आशय से
तुम पहचान छुपा जाते हो ?

कुछ चलचित्र में दृष्टिपटल पर,
मध्यरात्री रात्री को तुम आते हो,



                                                 १८/०३/२०१३_____©-राकेश 'गगन'

बस वक़्त बेरहम होता है (कविता)

क़ातिल हैं ख़न्जर तो क्या है
बस वक़्त बेरहम होता है,
जो वक़्त हँसाता हैं सबको
उस वक़्त में इन्सां रोता है,,!!

क़ातिल हैं ख़न्जर तो क्या है
बस वक़्त बेरहम होता है...!!

तुमने बस चक्की में आटे को
अब तक पिसते देखा है,
मैंने दो वक़्त के पहियों में
लोगों को घिसते देखा है,
देखा तो जनाज़ा क्या देखा
कुछ वक़्त जनाज़ा होता है,

क़ातिल हैं ख़न्जर तो क्या है
बस वक़्त बेरहम होता है...!!

ग़र भूल गये हो खेल वक़्त का
नज़र अतीतों पे डालो
तू हार गया है आज वक़्त से
कल की जीतों पे डालो,
ऐ ! इन्सां हार के वक़्त से क्यूँ
हर वक़्त नींद तू खोता है,

क़ातिल हैं ख़न्जर तो क्या है
बस वक़्त बेरहम होता है...!!

सूखी दरिया उजाड़ मौसम
बस वक़्त का अपना किस्सा है,
तू लिख इबारतें ख़ुद से ही
ये वक़्त तेरा अब हिस्सा है,
अब वक़्त के साये में आसूँ
दिन-रात तू क्यों पिरोता है,

क़ातिल हैं ख़न्जर तो क्या है
बस वक़्त बेरहम होता है...!!


बस वक़्त बेरहम होता है,,,!!



                                                          ०६/०३/२०१३_____©-राकेश 'गगन'

Sunday, September 2, 2012

मुक्क़मल ज़िन्दगी के........

मुक्क़मल ज़िन्दगी के फ़साने ना दिखे
वक़्त पर तेरे अपने निशाने ना दिखे,

देख ले आज तू ज़िन्दगी की ख़ुमारियाँ
शायद कल तुझे महफ़ूज़ ज़माने ना दिखे,

रिहा कर दे तू क़ैद ज़ुगनुओं को ज़ालिम
फ़ानूस रौशनी में ख़ामोश शबाने ना दिखे,

ऐतराज़ ना कर मायूस लम्हों से ज़िन्दगी के
कल तलक तुझको जीने के बहाने ना दिखे,

ढूँढ लो साहिले मुक़ाम को बेवक़्त ऐ गगन
क़श्तियाँ हों साहिलें होँ और ठिकाने ना दिखे,



                                                                            ©- राकेश 'गगन'

Saturday, August 25, 2012

कसम से आज कह दूँ क्या

कसम से आज कह दूँ क्या, है दिल में क्या मेरे रब्बा,
क़सक अब मौसमों का भी, न जाने क्यूँ लगा अच्छा,


कई शामों को जग-जग के, सहर तक आज हूँ सोता,
आदतें बन गयीँ अब तो, मुझे हर रात में जगना,



ऐ दीपक फ़िक्र ना कर तू, तेरा भी वक्त आयेगा,
निशा में चाँद की रौनक़, से अच्छा था तेरा ज़लना,


मुझे अफ़सोस है अबतक, ना कुछ भी है मेरा अपना,
नजर में ख़ास है कोई, मगर कुछ पास ना दिखता,





ऐ दुनियाँ सोच में है क्यूँ, गगन भी देखता सपना....





©- राकेश "गगन"

Sunday, May 27, 2012

♥♥ मत पूछ ऐ ज़िन्दगी हम किधर जा रहें हैं ♥♥

मत पूछ ऐ ज़िन्दगी हम किधर जा रहें हैं,
उम्र भर की तनहाई समेटे घर जा रहें हैं,



बेशोर सहमी सी महफ़िल है जहाँ,
उधार का ग़म लेकर हम उधर जा रहें हैं,



आश्ना है न कोई आसरा है न अपना,
हर ज़र्रा है अदम उस डगर जा रहें हैं,



ग़ुलज़ार न रहा न ग़ुलशन में इतर है,
लो शाम के तारीक़ अब शहर जा रहें हैं,



आशुफ्ता सा ढूँढता आफ़ताब रौशनी को,
हम दिन की तलाश में उस पहर जा रहें हैं,



ग़ुमराह ना कदम है ग़ुमसुम ही सही,
कुछ ऐसे बहके हम बेख़बर जा रहें हैं,





                                                                       ©- राकेश 'गगन'



आश्ना=relative, अदम=invisible, इतर=perfume, तारीक़=black light, आफताब=son