कसम से आज कह दूँ क्या, है दिल में क्या मेरे रब्बा,
क़सक अब मौसमों का भी, न जाने क्यूँ लगा अच्छा,
कई शामों को जग-जग के, सहर तक आज हूँ सोता,
आदतें बन गयीँ अब तो, मुझे हर रात में जगना,
ऐ दीपक फ़िक्र ना कर तू, तेरा भी वक्त आयेगा,
निशा में चाँद की रौनक़, से अच्छा था तेरा ज़लना,
मुझे अफ़सोस है अबतक, ना कुछ भी है मेरा अपना,
नजर में ख़ास है कोई, मगर कुछ पास ना दिखता,
ऐ दुनियाँ सोच में है क्यूँ, गगन भी देखता सपना....
©- राकेश "गगन"
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