Wednesday, March 21, 2012

अर्ज-ए-जहाँ

बला है क्या यह इन्सां भी,
हर पल अज़ीज पे मरता है,
जो खुद ग़ैरों पे टिका हुआ,
नाचीज़ उसी से डरता है,

फूलों की औकात ही क्या,
दिनकर से मतलब भूल गया,
माना चाहत है भँवरे की,
जो ख़ुद फूलों से सँवरता है,

वो क्या जाने इस दुनिया को,
दुनिया जिसको ही सताती है,
जो रूठते हैं बिन कारन ही,
शायद उनको ही मनाती है,

ख़ुद लोभ के कारण लोग सभी
अन्जाने में कुछ कर जाते,
ये लोभ है तो फिर जग सारा
पग-पग पे आहें भरता है,

जो ख़ुद मंजिल को पाया है
मेहनत की कीमत जानतें हैं,
एहसास हुआ ग़र उनको तो,
पत्थर को भी कुछ मानतें हैं,

पथ में पत्थर आ जाये तो
फिर क्या करना उनसे पूछो,
साकार हुआ ग़र सपना तो
पत्थर के खातिर लड़ता है

मैं दुनिया की बातों में खुद,
बेखुद अक्सर ही पाता हूँ,
अनायास अन्जाने ही
पल में पागल हो जाता हूँ,

मैं खुद जिनको ही ढूँढा था
सूनी दुनिया की गलियों में,
वो निगाह भी आज तलक हमको
दुनिया में खोजा करता है,

उलझा है वो खुद फिर से
मायूस जहाँ के फ़सानों में,
वो अब उलझाता है मुझको
अपने नाचीज़ बहानों में,

फिर आज "गगन" गुमराह सही
अपनी बातों पे अड़ता है,
बला है क्या यह इन्सां भी,
हर पल अज़ीज पे मरता है,

                                                                                                  05/05/2008 राकेश मिश्र 'गगन

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