ज़िन्दग़ी यूँ ही नही डूबती है अकेले किनारों पे,
अक्सर लोग साँस भी लेतें हैं किसी और के सहारों पे,
मंज़र में यादों का मलबा ही तो मिलता है दुनिया को,
बेवजह कौन नाज़ करता है अपने बीते नज़ारों पे,
सुकून यूँ ही नहीं गँवाया हमने, कुछ अपनी भी ख़ता रही होगी,
शायद हम भी ग़लती किये थे उनके ही इशारों पे,
मुझे रात की ख़लिश का कोई डर न था ऐ दोस्तों,
उसी ने मुझे पाल रखा था अपने चाँद सितारों पे,
रात भी ग़मगीन है और दिन भी रूलाता है,
ऐ ख़ुदा क्या क़हर बरपा दिया मेरे हँसते बहारों पे,,,,,
12/03/2012- राकेश "गगन"
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