एक ज़िन्दग़ी भी नसीब नहीं होती ज़िन्दग़ी को,
खुशीयाँ भी आँसू दे जाती हैं आदमी को,
कुछ खास ही होतें हैं रोनें वाले इस जहाँ में,
जो महफ़िल में सुला देतें हैं अपनी हँसी को,
यूँ तो हर वक्त ज़िन्दग़ी से लड़ रहा हूँ मैं,
बस दिल ही तरसता है एक छोटी सी खुशी को,
मेरी तनहाईयाँ ही सिर्फ वहम है मेरा,
मैं अक्सर अकेले ही गले लगाता हूँ बेबसी को,
उठती लहरों से साहिले-दिल में भी आस सी जगती है,
ऐ ख़ुदा तू क्यूँ देता है आस मेरी तिश्नग़ी को,
हम तो ख़ुशनसीब हैं कि हमनें आज़ सुबह देख ली,
वरना एक रौशनी भी नसीब नहीं होती है किसी किसी को,
15/05/2012 - राकेश "गगन"
© copyright 2012