Monday, January 20, 2014

कहाँ हम ज़लाएं दिया रौशनी का (कविता)


कहाँ हम मनाएं धरा पर दिवाली
कहाँ हम ज़लाएं दिया रौशनी का
तमस रह गया है दिवाली नयी है
कहाँ मिट चुका है ग़रीबी किसी का !!

कहाँ हम मनाएं धरा पर दिवाली
कहाँ हम ज़लाएं दिया रौशनी का !!
कहीं दिन में दीपक ज़लाए गएं हैं
कहीं मिट न पाया निशा का अन्धेरा,
कहीं चीखती रात दम तोड़ती है
कहीं दिख न पाया किसी को सवेरा
किसे शोर करने की फुर्सत यहाँ है
ये क़िस्सा है बस कुछ दबी ज़िन्दगी का !!

कहाँ हम मनाएं धरा पर दिवाली
कहाँ हम ज़लाएं दिया रौशनी का !!

तुम्हे रौशनी की तो ख़्वाहिश ना होगी
किराए पे सूरज को तुमने लिया है,
कहीं लूटती है शमा जिनकी अस्मत
कहीं लौ के ख़ातिर तरसता दिया है,
मुझे ग़म भुलाने की फुर्सत नहीं है
तुम्हें तो मिला है बहाना खुशी का !!

कहाँ हम मनाएं धरा पर दिवाली
कहाँ हम ज़लाएं दिया रौशनी का !!

कहाँ आस थी कि चिराग़े ज़लेंगीं
अंधेरी निशा में सुलगतें हैं तिनके,
दिवाली नसीबों में उनके कहाँ हैं
रक़ीबें हैं फूटी अमानत में जिनके,
ख़ुदा ने बनाया दिवाली तो कैसा
गगन देखता है अन्धेरा ज़मीं का !!

कहाँ हम मनाएं धरा पर दिवाली
कहाँ हम ज़लाएं दिया रौशनी का !!




                                                                     11/11/2012___©-राकेश 'गगन'

कुछ चलचित्र में दृष्टिपटल पर (कविता)


कुछ चलचित्र में दृष्टिपटल पर,
मध्यरात्री रात्री को तुम आते हो,
घोर निशा नित सारंगी संघ
साज़ सुरीले तुम गाते हो,
साया हो या हो चेतन तुम
कल्पित बिम्ब तेरा दिखता है,
सकल उजेरा हो रैना पर
संशय अज़ब बना रहता है,
मेरी अभिलाषा है तुमसे
शाश्वतता अपनी दिखलाओ,
आभासी या बन प्रतिमूर्ति
नयन समक्ष पुनः आ जाओ
आहत दिल में किस आशय से
तुम पहचान छुपा जाते हो ?

कुछ चलचित्र में दृष्टिपटल पर,
मध्यरात्री रात्री को तुम आते हो,



                                                 १८/०३/२०१३_____©-राकेश 'गगन'

बस वक़्त बेरहम होता है (कविता)

क़ातिल हैं ख़न्जर तो क्या है
बस वक़्त बेरहम होता है,
जो वक़्त हँसाता हैं सबको
उस वक़्त में इन्सां रोता है,,!!

क़ातिल हैं ख़न्जर तो क्या है
बस वक़्त बेरहम होता है...!!

तुमने बस चक्की में आटे को
अब तक पिसते देखा है,
मैंने दो वक़्त के पहियों में
लोगों को घिसते देखा है,
देखा तो जनाज़ा क्या देखा
कुछ वक़्त जनाज़ा होता है,

क़ातिल हैं ख़न्जर तो क्या है
बस वक़्त बेरहम होता है...!!

ग़र भूल गये हो खेल वक़्त का
नज़र अतीतों पे डालो
तू हार गया है आज वक़्त से
कल की जीतों पे डालो,
ऐ ! इन्सां हार के वक़्त से क्यूँ
हर वक़्त नींद तू खोता है,

क़ातिल हैं ख़न्जर तो क्या है
बस वक़्त बेरहम होता है...!!

सूखी दरिया उजाड़ मौसम
बस वक़्त का अपना किस्सा है,
तू लिख इबारतें ख़ुद से ही
ये वक़्त तेरा अब हिस्सा है,
अब वक़्त के साये में आसूँ
दिन-रात तू क्यों पिरोता है,

क़ातिल हैं ख़न्जर तो क्या है
बस वक़्त बेरहम होता है...!!


बस वक़्त बेरहम होता है,,,!!



                                                          ०६/०३/२०१३_____©-राकेश 'गगन'